Thursday, January 17, 2008

जब जब सिर उठाया

जब-जब सिर उठाया
अपनी चौखट से टकराया
मस्तक पर लगी चोट,
मन में उठी कचोट,
अपनी ही भूल पर मैं,
बार-बार पछताया.
जब-जब सिर उठाया
अपनी चौखट से टकराया.
दरवाज़े घट गए या
मैं ही बड़ा हो गया,
दर्द के क्षणों में कुछ
समझ नहीं पाया.
जब-जब सिर उठाया
अपनी चौखट से टकराया.
''शीश झुका आओ''बोला
बाहर का आसमान,
''शीश झुका आओ'' बोलीं
भीतर की दीवारें,
दोनों ने ही मुझे
छोटा करना चाहा,
बुरा किया मैंने जो
यह घर बनाया.
जब-जब सिर उठाया
अपनी चौखट से टकराया.

"सर्वेश्वर दयाल सक्सेना"

Sunday, January 13, 2008

गीत फरोश 'भवानीप्रसाद मिश्र'

कवि भवानीप्रसाद का जन्म मध्यप्रदेश के होशंगाबाद जिले के टिगरिया ग्राम मे हुआ. 'भारत छोड़ो' आन्दोलन मे भाग लेने के कारण तीन साल जेल में रहे. वर्धा आश्रम में अध्यापक के रूप में भी काम किया. आजीवन 'गाँधी स्मारक निधि सर्व सेवा संघ से जुड़े रहे. 'बुनी हुई रस्सी' काव्य संकलन के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित हुए. उनकी गीतफरोश कविता मुझे बहुत पसन्द है.

जी हाँ हज़ूर, मैं गीत बेचता हूँ
मैं तरह तरह के गीत बेचता हूँ
मैं किसिम-किसिम के गीत बेचता हूँ

जी, माल देखिए, दाम बताऊँगा,
बेकाम नहीं है, काम बताऊँगा,
कुछ गीत लिखे हैं मस्ती में मैंने
कुछ गीत लिखे हैं, मस्ती में मैंने
यह गीत सख्त सर-दर्द भुलाएगा,
यह गीत पिया को पास बुलाएगा!

जो पहले कुछ दिन शर्म लगी मुझको:
पर बाद-बाद में अक्ल जगी मुझको,
जी लोगों ने तो बेच दिए ईमान,
जी, आप न हों सुनकर ज़्यादा हैरान
मैं सोच-समझकर आखिर
अपने गीत बेचता हूँ

जी हाँ हुज़ूर, मैं गीत बेचता हूँ
मैं तरह तरह के गीत बेचता हूँ
मैं किसिम किसिम के गीत बेचता हूँ!
यह गीत सुबह का है, गाकर देखें,
यह गीत गज़ब का है, ढाकर देखें,
यह गीत ज़रा सूने में लिक्खा था,
यह गीत वहाँ पूने में लिक्खा था,
यह गीत पहाड़ों पर चढ़ जात है
यह गीत बढ़ाए से बढ़ जाता है!

यह गीत भूख और प्यास भगाता है,
जो यह मसान में भूत जगाता है,
यह गीत भुवाली की है हवा हुज़ूर
यह गीत तपेदिक की है दवा हुज़ूर
जी, और गीत भी हैं दिखलाता हूँ,
जी सुनना चाहें आप तो गाता हूँ.
जी, गीत जनम का लिखूँ मरण का लिखूँ,
जी, गीत जीत का लिखूँ शरण का लिखूँ
यह गीत रेशमी है, यह खादी का
यह गीत पित्त का है, यह बादी का
कुछ और डिज़ाइन भी हैं, यह इल्मी
यह लीजे चलती चीज नयी फिल्मी

यह सोच सोचकर मर जाने का गीत!
यह दुकान से घर जाने का गीत!
जी नहीं, दिल्लगी की इसमें क्या बात,
मैं लिखता ही तो रहता हूँ दिन-रात
तो तरह तरह के बन जाते हैं गीत,
जी, रूठ-रूठकर मन जाते हैं गीत,
जी, बहुत ढेर लग गया, हटाता हूँ,
गाहक की मर्ज़ी, अच्छा जाता हूँ,
या भीतर जाकर पूछ आइए आप,
है गीत बेचना वैसे बिल्कुल पाप,
क्या करूँ मगर लाचार
हारकर गीत बेचता हूँ.

जी हाँ हज़ूर, मैं गीत बेचता हूँ
मैं तरह तरह के गीत बेचता हूँ !
मैं किसिम-किसिम के गीत बेचता हूँ !

Friday, January 11, 2008

जान भर रहे जंगल में

नागार्जुन जिनका वास्तविक नाम वैद्यनाथ मिश्र है. सन 1911 ई. में जिला दरभंगा के सतलखा गाँव में जन्में. 1936 में श्री लंका जाकर बौद्ध धर्म की दीक्षा ली. 1938 में अपने देश लौटे. नागा बाबा के नाम से प्रसिद्ध हुए. घुमक्कड़ फक्कड़ किस्म के व्यक्ति थे. नवम्बर 1998 में स्वर्ग सिधारे.
'जान भर रहे जंगल में' कविता पढ़कर मन का जुगनु जगमग करने लगता है.

गीली भादों
रैन अमावस...
कैसे ये नीलम उजास के
अच्छत छींट रहे जंगल में
कितना अद्भुत योगदान है
इनका भी वर्षा-मंगल में
लगता है ये ही जीतेंगे
शक्ति प्रदर्शन के दंगल में
लाख लाख हैं, सौ हज़ार हैं
कौन गिनेगा, बेशुमार हैं
मिल-जुलकर दिप-दिप करते हैं
कौन कहेगा, जल मरते हैं...
जान भर रहे हैं जंगल में

जुगनु हैं ये स्वयं प्रकाशी
पल-पल भास्वर पल-पल नाशी
कैसा अद्भुत योगदान है
इनका भी वर्षा-मंगल में
इनकी विजय सुनिश्चित ही है
तिमिर तीर्थ वाले दंगल में
इन्हें न तुम बेचारे कहना
अजी यही तो ज्योति-कीट हैं
जान भर रहे हैं जंगल में
गीली भादों
रैन अमावस...

Friday, January 4, 2008

हिन्दी साहित्य का अतीत वर्तमान में लिखने की कोशिश

हिन्दी साहित्य के सुनहरे अतीत का एक महल बनाने की इच्छा हुई तो बस सोचा कि अपने पहले ब्लॉग़ 'प्रेम ही सत्य है' में जो साहित्यिक लेखन है उन्हें नींव की सुनहरी ईंटों की तरह यहाँ लगा देना चाहिए. जब भी हिन्दी साहित्य से जुड़ा कुछ पद्य या गद्य के रूप में पढ़ा तो यहाँ इस ब्लॉग पर लिखने का निश्चय किया है.

श्री सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' की 'तोड़ती पत्थर' कविता ने मुझे हमेशा बाँधा है, कड़ी मेहनत करने वाली हर नारी का चित्र आँखों के सामने उभर आता है. घर हो या बाहर का कार्य-क्षेत्र हो, स्त्री हमेशा मुस्कान बिखेरती घर-बाहर के काम करने को तत्पर दिखाई देती है.

वह तोड़ती पत्थर;
देखा उसे मैंने इलाहाबाद के पथ पर -
वह तोड़ती पत्थर.

कोई न छायादार
पेड़ वह जिसके तले बैठी हुई स्वीकार;
श्याम तन, भर बँधा यौवन,
नत नयन प्रिय, कर्म-रत मन,
गुरु हथौड़ा हाथ,
करती बार-बार प्रहार;
सामने तरु-मालिका अट्टालिका, प्राकार.

चढ़ रही थी धूप;
गर्मियों के दिन
दिवा का तमतमाता रूप;
उठी झुलसाती हुई लू;
रुई ज्यों जलती हुई भू,
गर्द चिनगी छा गई,
प्राय: हुई दुपहर:-
वह तोड़ती पत्थर.

देखते देखा मुझे तो एक बार
उस भवन की ओर देखा, छिन्नतार;
देखकर कोई नहीं,
देखा मुझे उस दृष्टि से
जो मार खा रोई नहीं,
सजा सहज सितार,
सुनी मैंने वह नहीं जो थी सुनी झंकार
एक क्षण के बाद वह काँपी सुघर
ढुलक माथे से गिरे सीकर,
लीन होते कर्म में फिर ज्यों कहा -
'मैं तोड़ती पत्थर.'