हिन्दी साहित्य के सुनहरे अतीत का एक महल बनाने की इच्छा हुई तो बस सोचा कि अपने पहले ब्लॉग़ 'प्रेम ही सत्य है' में जो साहित्यिक लेखन है उन्हें नींव की सुनहरी ईंटों की तरह यहाँ लगा देना चाहिए. जब भी हिन्दी साहित्य से जुड़ा कुछ पद्य या गद्य के रूप में पढ़ा तो यहाँ इस ब्लॉग पर लिखने का निश्चय किया है.
श्री सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' की 'तोड़ती पत्थर' कविता ने मुझे हमेशा बाँधा है, कड़ी मेहनत करने वाली हर नारी का चित्र आँखों के सामने उभर आता है. घर हो या बाहर का कार्य-क्षेत्र हो, स्त्री हमेशा मुस्कान बिखेरती घर-बाहर के काम करने को तत्पर दिखाई देती है.
वह तोड़ती पत्थर;
देखा उसे मैंने इलाहाबाद के पथ पर -
वह तोड़ती पत्थर.
कोई न छायादार
पेड़ वह जिसके तले बैठी हुई स्वीकार;
श्याम तन, भर बँधा यौवन,
नत नयन प्रिय, कर्म-रत मन,
गुरु हथौड़ा हाथ,
करती बार-बार प्रहार;
सामने तरु-मालिका अट्टालिका, प्राकार.
चढ़ रही थी धूप;
गर्मियों के दिन
दिवा का तमतमाता रूप;
उठी झुलसाती हुई लू;
रुई ज्यों जलती हुई भू,
गर्द चिनगी छा गई,
प्राय: हुई दुपहर:-
वह तोड़ती पत्थर.
देखते देखा मुझे तो एक बार
उस भवन की ओर देखा, छिन्नतार;
देखकर कोई नहीं,
देखा मुझे उस दृष्टि से
जो मार खा रोई नहीं,
सजा सहज सितार,
सुनी मैंने वह नहीं जो थी सुनी झंकार
एक क्षण के बाद वह काँपी सुघर
ढुलक माथे से गिरे सीकर,
लीन होते कर्म में फिर ज्यों कहा -
'मैं तोड़ती पत्थर.'
4 comments:
bachpan me padhi thi kabhi,aaj aapne yad dila di dubara.
हिन्दी साहित्य को अंतर्जाल पा लाने का यह प्रयास सराहनीय है
दीपक भारतदीप
अनुराग जी , दीपक जी , आप दोनो को यहाँ देख कर हमे बहुत खुशी हुई.. अब हम जो भी कविता पढ़ेंगे उसके फौरन बाद यहाँ पोस्ट करेंगे.
Wo thodti patthar : Kavi Nirala ki meri sabse priya rachna. Shukriya ,saalo baar dobara isse satshakaar karvaane ka.
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