अपनी चौखट से टकराया
मस्तक पर लगी चोट,
मन में उठी कचोट,
अपनी ही भूल पर मैं,
बार-बार पछताया.
जब-जब सिर उठाया
अपनी चौखट से टकराया.
दरवाज़े घट गए या
मैं ही बड़ा हो गया,
दर्द के क्षणों में कुछ
समझ नहीं पाया.
जब-जब सिर उठाया
अपनी चौखट से टकराया.
''शीश झुका आओ''बोला
बाहर का आसमान,
''शीश झुका आओ'' बोलीं
भीतर की दीवारें,
दोनों ने ही मुझे
छोटा करना चाहा,
बुरा किया मैंने जो
यह घर बनाया.
जब-जब सिर उठाया
अपनी चौखट से टकराया.
"सर्वेश्वर दयाल सक्सेना"
6 comments:
अंदर तक जाते हैं ये भाव और उद्वेलन पैदा करते हैं । आपको ऐसे स्तुत्य प्रयासों के लिये साधुवाद...
धन्यवाद इतनी अचछी कविता पढाने का ।
sach me barso pahle padhi thi kisi railway station par shyad. aaj fir yad aa gayi.
ghamand ko samrpit apke vichaar shreshth hai
rajesh
यह घर बनाया.
जब-जब सिर उठाया
अपनी चौखट से टकराया
nicely edited
regards
बहुत बढ़िया!
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