Thursday, July 17, 2014

क्रीड़ा

एक बार फिर पाठकों को नमस्कार ! अंतराल को अनदेखा करके फिर से पढ़ेंगे तो अच्छा लगेगा  हालाँकि जानती हूँ नियमित होना लेखन में ही नहीं जीवन में भी ज़रूरी है. अगले ही पल खुद को समझाने लगती हूँ झरने जैसे जीवन की अपनी ही खूबसूरती है. कभी बहता झरता और कभी सूखा सूखा....फिर से झरना झरझर करके बहने को आतुर 'क्रीड़ा' कविता लेकर आया है....

क्रीड़ा ही बचपन का जीवन
खिल उठता जिससे शिशु का मन
          जैसा गिरि का  निर्झर निर्मल
          जैसा वन की सरिता का जल
          जैसा उपवन का पंछी -  दल
          स्वच्छन्द, मुक्त, हर्षित, चंचल
वैसा ही शिशु, वैसा बचपन
क्रीड़ा ही बचपन का जीवन
          इमली, रसाल, बरगद, पीपल
          इन तरुओं की छाया शीतल
          मखमली, हरा, कोमल-कोमल
          जग के आँगन का दूर्वा-दल
बस यहीं फुदकता कोमल तन
क्रीड़ा ही बचपन का जीवन
          चाँदनी रात में उछल-उछल
          क्रीड़ा करता है जब शिशु दल
          सुन-सुन इनका कलरव उस पल
          आती बाहर तारिका निकल
कितना सुंदर वह छवि-दर्शन
क्रीड़ा ही बचपन का जीवन !

"गोपाल सिंह नेपाली"
   



5 comments:

कविता रावत said...

गोपाल सिंह नेपाली" जी सुन्दर रचना साझी करने के लिए धन्यवाद

कविता रावत said...

गोपाल सिंह नेपाली" जी सुन्दर रचना साझी करने के लिए धन्यवाद

Anonymous said...

aapne bahut hi accha lekh prstut kiya he iske liye aapka bahut dhanywaad

HindIndia said...

बहुत ही सटीक ....... बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति। Nice article ... Thanks for sharing this !! :):)

Udan Tashtari said...

गोपाल सिंह नेपाली" जी की सुन्दर रचना -आभार